- Zakir Hussain Death: तबले के महारथी उस्ताद जाकिर हुसैन का 73 वर्ष की आयु निधन... परिवार ने की पुष्टि, भारत और दुनिया में शोक की लहर | सच्चाईयाँ न्यूज़

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

Zakir Hussain Death: तबले के महारथी उस्ताद जाकिर हुसैन का 73 वर्ष की आयु निधन... परिवार ने की पुष्टि, भारत और दुनिया में शोक की लहर

 


मशहूर तबला उस्ताद जाकिर हुसैन अब हमारे बीच नहीं रहे। 73 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। सोमवार सुबह अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में उन्होंने अंतिम सांस ली। उस्ताद जाकिर हुसैन को रविवार रात एक अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था, जहां उनकी स्थिति गंभीर थी।उन्हें रक्तचाप से जुड़ी समस्याएं थीं। उस्ताद जाकिर हुसैन, जिन्हें तबले की दुनिया में एक अलग पहचान हासिल थी, उस्ताद अल्ला रक्खा खां के सुपुत्र थे और उन्होंने तबले की तालीम अपने पिता से ही ली थी।

संगीत जगत में अद्वितीय योगदान 

उस्ताद जाकिर हुसैन ने तबले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित किया। महज 11 साल की उम्र में उन्होंने अमेरिका में पहला कॉन्सर्ट किया था, और इसके बाद 62 साल तक उनका और तबले का संबंध अटूट बना रहा। उस्ताद को तीन बार ग्रैमी अवॉर्ड मिला, जिनमें 1992 में 'द प्लेनेट ड्रम' और 2009 में 'ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट' के लिए उन्हें ये सम्मान प्राप्त हुआ। 2024 में उन्हें तीन अलग-अलग संगीत एलबमों के लिए तीन ग्रैमी अवॉर्ड मिले। इसके अलावा, उस्ताद जाकिर हुसैन को भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से भी नवाजा गया था।

संगीत और परिवार की दुनिया में समृद्धि

उस्ताद जाकिर हुसैन ने न केवल अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया, बल्कि तबले को शास्त्रीय संगीत के दायरे से बाहर भी पहचाना। 1978 में, उन्होंने कथक नृत्यांगना एंटोनिया मिनीकोला से शादी की, और उनके दो बेटियां अनीसा कुरैशी और इसाबेला कुरैशी हैं। 

सिनेमाई सफर भी था उतना ही महत्वपूर्ण

संगीत के साथ-साथ उस्ताद जाकिर हुसैन ने अभिनय में भी अपनी पहचान बनाई। 1983 में उन्होंने फिल्म 'हीट एंड डस्ट' से अभिनय की दुनिया में कदम रखा था। इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें 'द परफेक्ट मर्डर' (1988), 'मिस बैटीज चिल्डर्स' (1992), और 'साज' (1998) जैसी फिल्में शामिल हैं।

तबले के प्रति उनका प्यार और शास्त्रीय संगीत में नवाचार

उस्ताद जाकिर हुसैन तबले को हमेशा आम लोगों से जोड़ने की कोशिश करते थे। शास्त्रीय संगीत प्रस्तुतियों में वह बीच-बीच में तबले से अलग-अलग ध्वनियाँ निकालते थे, जैसे डमरू, शंख, या बारिश की बूंदों की आवाज़। उनका मानना था कि शिवजी के डमरू से कैलाश पर्वत से जो ध्वनियाँ निकली थीं, वही ताल के रूप में तबले पर बजाई जाती हैं। इस प्रकार उन्होंने तबले को न केवल शास्त्रीय बल्कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों से जोड़ा।

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