काव्या की किसी मुसलमान लड़की से यह पहली दोस्ती है. दोस्ती बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में रूममेट बनने के बाद हुई.
काव्या कहती हैं कि नूर फ़ातिमा ख़ान से दोस्ती इसलिए जल्दी हो गई क्योंकि दोनों का फ़ूड एक है.
नूर फ़ातिमा ख़ान को जब पता चला कि काव्या तमिलनाडु की हैं तो उन्हें लगा कि दोनों के बीच बात कैसे होगी?
नूर सोचने लगीं कि अंग्रेज़ी बोलनी होगी लेकिन काव्या ने नूर से हिन्दी में बात शुरू की तो उन्होंने राहत की सांस ली.
काव्या लंबे समय से उत्तर भारत में रही हैं, इसलिए वह अच्छी हिन्दी भी बोलती हैं.
नूर कहती हैं, "हम लोगों का खाना एक है लेकिन साथ रहते हुए पता चला कि गाने भी हम दोनों एक जैसे ही सुनते हैं."
उत्तर प्रदेश की नूर और तमिलनाडु की काव्या का बीएचयू कैंपस के होस्टल में रूममेट बनना एक संयोग था.
काव्या को जो रूम मिल रहा था, वो पसंद नहीं था. आख़िर में केवल काव्या और नूर बच गई थीं. दोनों को एक पसंदीदा रूम मिल गया और दोनों रूममेट बन गईं. दोनों बीएचयू से फ़ाइन आर्ट्स में मास्टर कर रही हैं.
नूर बताती हैं कि साथ में रहते हुए मुश्किल से एक या दो दिन हुए थे.
काव्या अपनी माँ से फ़ोन पर तमिल में बात कर रही थीं. इस बातचीत में वह बार-बार 'नूर' बोल रही थीं. काव्या की बातचीत में अपना नाम सुनकर नूर के कान खड़े हो गए.
नूर की काव्या से शिकायत
नूर को लगा कि अभी तो दो दिन ही हुए हैं और काव्या अपनी माँ से उनकी शिकायत करने लगी हैं.
नूर से नहीं रहा गया और उन्होंने काव्या से पूछ लिया, ''तुम अपनी माँ से बातचीत में मेरा नाम बार-बार क्यों ले रही थी?"
इस पर काव्या ज़ोर से हँसने लगीं और कुछ देर तक हँसती रहीं. नूर और बुरी तरह से चिढ़ गई थीं.
फिर काव्या ने बताया कि तमिल में 'नूर' का मतलब सौ होता है. काव्या ने बताया कि वह अपनी माँ से कैश के बारे में बात कर रही थीं कि आज पाँच सौ खर्च हुए, परसों तीन सौ खर्च हुए थे. जहाँ-जहाँ भी सौ आ रहा था, वहाँ-वहाँ काव्या 'नूर' बोल रही थीं.
अब हँसने की बारी नूर की थी. वह कुछ देर तक हँसती रहीं और फिर दोनों एक साथ हँसने लगीं.
दोनों की दोस्ती की शुरुआत इसी हँसी से होती है लेकिन दोनों के संबंधों में रोना भी है, नाराज़गी भी है और ग़ुस्सा भी, पर इससे पहले आपको मोहम्मद शाहिद और मनीष के कमरे में ले चलते हैं.
शाहिद और मनीष के कमरे में क़दम रखते ही नज़र कई पेंटिंग पर जाती है. इस कमरे को देखते हुए लगा कि दोनों ने अपने ग़म, ग़ुस्से, ख़ुशियाँ और ख़्वाबों को कैनवस में भर दिया है.
फ़ाइन आर्ट के दोनों छात्र मूर्तियाँ भी बनाते हैं. शाहिद के पिता राज मिस्त्री हैं और मनीष के पिता दर्ज़ी. शाहिद और मनीष ने मुश्किल घड़ी में मज़दूरी भी की है लेकिन अब उनके हाथों को नया हुनर आ गया है.
इस हुनर में इतने रंग और आकृतियाँ हैं कि मूर्त और अमूर्त के बीच का भेद मिट गया है.
क़ुरान और देवी सरस्वती एक साथ
दोनों के कमरे का बुक शेल्फ़ एकाएक ध्यान खींचता है. बुक शेल्फ़ के एक कोने में क़ुरान रखा हुआ है और नमाज़ पढ़ने के लिए टोपी. उसके ठीक ऊपर देवी सरस्वती की मूर्ति और एक तस्वीर रखी है.
शाहिद बताते हैं कि वह इसी कमरे में नमाज़ पढ़ते हैं और उनके रूममेट पूजा करते हैं. शाहिद क़ुरान और देवी सरस्वती की मूर्ति दिखाते हुए कहते हैं- "सर, भारत तो ऐसा ही होना चाहिए न?"
शाहिद की बात से यह समझना मुश्किल था कि यह उनकी चाहत है या सवाल.
काव्या और नूर, शाहिद और मनीष, इन युवाओं के जीवन में कई सवाल, कई ख़्वाब और कई उलझने हैं, दोस्तों की दोनों जोड़ियों के कैनवस में साझे रंग के प्रवाह में अड़चनें एक जैसी ही हैं.
भारत में धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति से दोनों रूममेट्स की दोस्ती के कैनवस पर अविश्वास का बादल मंडराया लेकिन इन्होंने अपने साझे रंग को इतनी कच्ची उम्र में भी धुलने नहीं दिया.
मैंने काव्या और नूर से पूछा कि जब भी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक नफ़रत की वारदातें होती हैं तो उनके संबंधों पर कैसा असर पड़ता है?
काव्या बताती हैं, "हम दोनों इस पर बात तो करते हैं. मुझसे नूर ने एक बार कहा कि उसे मुस्लिम होने के कारण बनारस में किराए पर कमरा नहीं मिलता है. नूर की इस बात पर मैं कुछ देर तक चुप रही और सोचने लगी कि उसे कैसे जवाब दूँ कि उसके भीतर हीन भावना न भरे.''
''मैंने उसे समझाया कि मुझे भी दिल्ली में कमरा नहीं मिलता था क्योंकि मैं नॉन वेज खाती हूँ. दक्षिण भारत के 90 फ़ीसदी से ज़्यादा हिन्दू नॉन वेज खाते हैं. मैंने नूर को समझाया कि यहाँ केवल धर्म के आधार पर ही भेदभाव नहीं है बल्कि खान-पान के आधार पर भी है. इस भेदभाव की चपेट में हिन्दू भी आते हैं."
नूर की नाउम्मीदी और निराशा में काव्या एक मज़बूत उम्मीद की तरह खड़ी रहीं जबकि शाहिद को अपने रूममेट से ही जूझना पड़ा.
शाहिद बताते हैं, "मुझे अपने गाँव, शहर और आसपास के लोगों से मुसलमान होने के कारण जो झेलना पड़ा, उसकी कोई गिनती नहीं है लेकिन मनीष की सोच भी वैसी ही थी. अभी के मनीष और एक साल पहले के मनीष में बहुत फ़र्क़ है."
शाहिद की बातों से मनीष भी सहमति जताते हुए कहते हैं, "अगर शाहिद ना मिला होता तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं बन पाता. मेरे मन में मुसलमानों को लेकर कई तरह की धारणाएँ थीं. इसे नफ़रत भी कह सकते हैं."
वे कहते हैं, "मुझे लगता था कि यहाँ मुसलमान क्यों हैं? उनके लिए तो पाकिस्तान बन ही गया है. पाकिस्तान जब बना था, तभी भारत से मुसलमानों को मारकर भगा देना चाहिए था. जब भी भारत में आतंकवादी हमला होता था तो मुसलमानों को लेकर मन में नफ़रत भर जाती थी."
नफ़रत कहाँ से आई?
मनीष के मन में इतनी नफ़रत कहाँ से आई? इस सवाल का जवाब मनीष और शाहिद दोनों देते हैं.
शाहिद कहते हैं, "मनीष पढ़ने से ज़्यादा मोबाइल पर एंटी मुस्लिम कॉन्टेंट देखता था. उसका मुसलमानों से कभी मेलजोल रहा नहीं. मैंने कई बार उसे देखा कि बग़ल में ही बैठकर मुसलमानों को भला-बुरा कहने वाले वीडियो देखता था. फिर मैंने सोचा कि इससे बात करनी चाहिए.
"मनीष घर से बहुत ग़रीब है. दलित परिवार से है. पापा किसी तरह घर चलाते हैं. इस पर दबाव रहता है कि पढ़ाई छोड़े और काम करे. मनीष के पास अक्सर रेंट देने के लिए पैसे नहीं होते हैं."
शाहिद कहते हैं, "मैंने मनीष को पेंटिंग के कुछ काम दिलवाए. इसके बदले उसे पैसे मिलने लगे. फिर उसे रेंट देने और खाने-पीने के खर्च की चिंता नहीं रही. उसे अपने घर लेकर आया. वहाँ रहा और मेरे परिवार वालों से मिला. धीरे-धीरे उसे अहसास हुआ कि मुसलमानों को लेकर उसके मन में जो नफ़रत है, वह झूठ पर आधारित है."
काव्या और नूर के मामले में स्थिति दूसरी है. नूर को जब लगता है कि उन्हें मुस्लिम होने के कारण भेदभाव झेलना पड़ रहा है तब काव्या उन्हें समझाती हैं.
काव्या बताती हैं, ''नूर कई बार ग़ुस्से में कमरे से कोई सामान उठाकर फेंक देती है. मैं उससे पूछती हूँ कि क्यों नाराज़ हो? फिर पता चलता है, वह किसी की बात से दुखी हुई है."
वे कहती हैं, "उसे कहीं मुस्लिम होने के नाते तंज़ झेलना पड़ा है. फिर मैं नूर से कहती हूं कि देखो मैं भी हिन्दू ही हूँ और तेरे साथ बहुत मोहब्बत से रहती हूँ.''
नूर कैंपस का एक वाक़या बताते हुए कहती हैं, ''मैं कैंपस के मंदिर में पढ़ाई कर रही थी. तभी लोग आए और कहा कि हिजाब के साथ मंदिर में नहीं रह सकती. मैंने उनसे कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि हिजाब में नहीं आ सकती."
"फिर उन्होंने दीवार पर लिखा हुआ दिखाया कि बुर्क़े में मंदिर आना वर्जित है. मैं चुपचाप बाहर निकल गई. लेकिन मेरे हिन्दू दोस्तों ने वहाँ मेरा साथ दिया और इसका खुलकर विरोध किया कि हिजाब में कोई मंदिर क्यों नहीं आ सकता है. मुझे अच्छा लगा कि हिन्दू दोस्तों ने मेरा साथ दिया.''
सांप्रदायिक तनाव का आपसी संबंधों पर असर
जब भी देश में सांप्रदायिक तनाव होता है तो नूर और काव्या के संबंधों पर क्या असर पड़ता है?
काव्या बताती हैं, ''हम दोनों के घर से फोन आने लगते हैं. माँ-पापा कहने लगते हैं कि तुम दोनों ठीक से रहना. बाहर मत जाना. मेरी माँ कहती हैं कि नूर का ख़्याल रखना. उसे अपने साथ ही रखना."
"नूर की माँ भी फोन पर कहती हैं कि बाहर मत जाना. घर वाले बुरी तरह से डर जाते हैं. ये डर लड़कियों की स्वतंत्रता में सबसे बड़ी बाधा है. लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल तभी बन पाएगा जब सेक्युलर माइंड के लोग बड़ी संख्या में होंगे."
काव्या और नूर फ़ातिमा ख़ान की दोस्ती मुश्किल वक़्त में और गहरी हुई है. दोनों को साइकिल चलाना नहीं आता था लेकिन दोनों ने एक दूसरे को साइकिल चलाना सिखा दिया.
दोनों को लगता है कि एक दूसरे से न मिलते तो वे इंसानियत के जज़्बे को ठीक से नहीं समझ पाते. नूर मज़हबी भेदभाव का शिकार बनती हैं तो उन्हें काव्या सँभालती हैं और काव्या के भीतर मायूसी भरती है तो उन्हें नूर सँभालती हैं.
लेकिन ऐसा नहीं हैं कि ज़िंदगी की मुश्किलें हल हो गई हैं.
शाहिद बताते हैं, ''मैं ग़ाज़ीपुर ज़िले में गहमर गाँव का हूँ. यह ठाकुर बहुल गाँव है और यहाँ के सैकड़ों लोग आर्मी में हैं. एक दिन हम अपने हिन्दू दोस्तों के साथ बैठे हुए थे. तभी एक दोस्त के पिता जो आर्मी में थे, वो आए और ग़ुस्से में मेरी तरफ़ इशारा करते हुए अपने बेटे से कहा- इनके साथ क्या कर रहे हो? ये तो कुछ भी करके जी लेंगे. इनके पास बहुत काम है. पंचर की दुकान लगा लेंगे.''
शाहिद बताते हैं, "पूरा वाक़या पापा से बताया तो उन्होंने कहा कि पढ़कर जवाब दो और अपमान का बदला ख़ुदा पर छोड़ दो. तभी से मैंने सोचा कि मुझे जमकर पढ़ाई करनी है. मेरी पढ़ाई बहुत अच्छी चल रही है. इसी के ज़रिए जवाब देना है.''
शाहिद कहते हैं, ''सर, मुसलमान हैं तो सहना पड़ेगा. मुसलमानों के बीच एक समझदारी बनी है कि उनकी आक्रामकता पर रिएक्ट न करो. नरमी से पेश आओ और बाक़ी इंसाफ़ का मामला ख़ुदा पर छोड़ दो.''
समझदारी या गहरा अविश्वास
शाहिद इतनी कम उम्र में ऐसी समझदारी भरी बातें करते हैं, मानो वह समय से पहले बड़े हो गए हैं.
बीएचयू में हिन्दी साहित्य के प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं कि यह नाउम्मीदी में उपजी हुई समझदारी है और इससे हमें आश्वस्त नहीं बल्कि परेशान होना चाहिए.
प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ''उत्तर भारत का हिन्दू अपने धर्म को लेकर सार्वजनिक तौर पर उग्र हुआ है यानी वह धार्मिक प्रतीकों और पहचानों का ज़्यादा इस्तेमाल कर रहा है. हिन्दुओं के इस सार्वजनिक प्रदर्शन से उनकी मनोदशा भी बदली है, ऐसा नहीं होता है कि आपके कपड़े बदलते हैं तो चरित्र पर कोई असर नहीं पड़ता है. पहले ऐसा लगता था कि यह बाहरी परिवर्तन है लेकिन धीरे-धीरे आंतरिक परिवर्तन भी हो रहा है.''
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, ''दूसरी तरफ़ उत्तर भारत का मुसलमान अपने निजीपन में या आंतरिक रूप से ज़्यादा मुसलमान हुआ है. यानी पिछले 150 सालों में स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिकीकरण के प्रभाव में मुसलमानों के भीतर जो आधुनिक सिविल सोसाइटी का जन्म हो रहा था, उसमें कहीं न कहीं कमी आई है और अपने आप में एक सिमटता हुआ समाज बन रहा है."
"यानी हिन्दू सार्वजनिक रूप से ज़्यादा हिन्दू हुए हैं और मुस्लिम आंतरिक रूप से ज़्यादा मुस्लिम हुए हैं. अब दोनों समुदायों के बीच वो पारंपरिक आत्मीयता दिखाई नहीं देती है. यह बदलाव केवल राजनीति में ही नहीं है बल्कि समाज में भी हुआ है.''
प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं कि शाहिद की समझदारी इसी आंतरिक परिवर्तन की प्रक्रिया का हिस्सा है.
वह कहते हैं, ''पहले अक्सर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे होते थे. ज़ाहिर है कि यह अविश्वास और नफ़रत के कारण होता था. फिर भी इसमें एक किस्म की सहजता थी. दोनों समुदायों के आक्रामक लोग एक दूसरे पर ग़ुस्सा निकालते थे."
"लेकिन अब मुसलमानों में ग़ुस्से से पैदा होने वाली सहज प्रतिक्रिया ख़त्म हो गई है. अब इसकी जगह सुनियोजित किस्म की चुप्पी ने ले ली है. सबसे बड़ी धार्मिक आबादी (हिन्दू) के प्रति दूसरी सबसे बड़ी धार्मिक आबादी (मुसलमान) का विश्वास ख़त्म हो रहा है.''
लेकिन इन सब के बीच नूर-काव्या और शाहिद-मनीष की दोस्ती को देखने पर लगता है कि सहज सह-अस्तित्व की संभावना अब भी क़ायम है.
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