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शनिवार, 23 मार्च 2024

UP:-योगी सरकार के 'ठोक देने' और 'मिट्टी में मिलाने' के इस तरीके पर क्यों उठ रहे हैं सवाल

 19 मार्च, 2017 को योगी आदित्यनाथ ने पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इसके 12वें दिन 31 मार्च, 2017 को सहानरपुर में एक एनकाउंटर हुआ. ये योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद यूपी में पहला एनकाउंटर था जिसमें नंदापुर गांव के रहने वाले गुरमीत को मारा गया.

आठ साल बाद, बीते मंगलवार की देर रात को यूपी का सबसे हालिया एनकाउंटर हुआ जिसकी चर्चा देश के लगभग हर अख़बार और न्यूज़ चैनल्स पर की जा रही है.


बदांयू में दो बच्चों की हत्या के मामले में अभियुक्त साजिद को मंगलवार की देर रात पुलिस ने एनकाउंटर में मारा.


बदांयू के एसएसपी आलोक प्रियदर्शी ने एनकाउंटर की जानकारी देते हुए कहा, "जानकारी मिली कि शेखूपुर के जंगल के पास बच्चों का जो खून लगा था उसके दाग वाले कपड़ों में कोई भाग रहा है. हमने घेराव किया तो उसने (साजिद) पुलिस पर फायरिंग की. जवाबी कार्रवाई में वो मारा गया."


अब आपको उत्तर प्रदेश के एक और चर्चित एनकाउंटकर की याद दिलाते हैं जो 10 जुलाई 2020 को हुआ. गैंगस्टर विकास दुबे का एनकाउंटर. उस समय भी यूपी पुलिस ने कहा था, "गिरफ्तारी के बाद पुलिस उन्हें कानपुर ले जा रही थी लेकिन गाड़ी पलट गई और विकास दुबे पुलिसकर्मी की पिस्टल ले कर भागे, जब पुलिस ने उन्हें घेरा और आत्मसमर्पण करने को कहा था तो उन्होंने फायर किया, बदले में पुलिस ने आत्मरक्षा में फायरिंग की जिसमें विकास दुबे घायल हुआ और अस्पताल में उसकी मौत हो गई."


यूपी में एनकाउंटर


 

बीते साल अप्रैल में गैंगस्टर और पूर्व सांसद अतीक़ अहमद के बेटे असद अहमद को झांसी में हुए एक एनकाउंटर में मारा गया.


इस एनकाउंटर में भी यूपी पुलिस ने कहा कि "जवाबी कार्रवाई में असद अहमद मारे गए."


बीते साल मई में इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट मे कहा था कि साल 2017 में जब से राज्य में योगी की सरकार है तब से हर 15 दिन में एक एनकाउंटर हुआ है.


साल 2017 से साल 2022 तक का इंडियन एक्सप्रेस अख़बार का डेटा ये कहता है कि राज्य में 186 एनकाउंटर हुए हैं और लगभग 5000 ऐसे अभियुक्त हैं जिन्हें फायरिंग से चोट आई, ये फायरिंग ज्यादातर पैर पर निशाना लगा कर की गई थी.


यूपी में एनकाउंटर कोई नई बात नयी बात नहीं है बल्कि देश के बाकि हिस्सों में भी ऐसे एनकाउंटर होते हैं जिन्हें लेकर उनकी प्रमाणिकता पर सवाल खड़े हुए और बाद में उनमें से कुछ एनकाउंटर को फर्ज़ी पाया गया.


हैदराबाद एनकाउंटर


हैदराबाद में साल 2019 में एक ऐसा ही एनकाउंटर हुआ था जो दो साल बाद फर्जी साबित हुआ और पुलिस वालों पर हत्या का केस चला.


नवंबर, 2019 में हैदराबाद में एक वेटरनरी डॉक्टर के साथ गैंगरेप और हत्या कर दी गई.


इस केस में अभियुक्त मोहम्मद आरिफ़, चिंताकुंता, चेन्नाकेशवल्लू और जोलू शिवा को गिरफ़्तार किया था लेकिन पुलिस ने हैदराबाद के पास एनएच-44 पर इन चार अभियुक्तों को गोली मार दी. इसी हाइवे के पास 27 वर्षीय गैंगरेप का शिकार हुई डॉक्टर का जला हुआ शव भी मिला था.



इस 'एनकाउंटर' के बाद लोगों ने पुलिस का समर्थन किया था और जश्न मनाया था.

जो मंगलवार को उत्तर प्रदेश के बदांयू में साजिद के साथ हुआ उस एनकाउंटर को लेकर भी लोगों में सकरात्मक प्रकिया है, कई लोग इसकी तारीफ़ कर रहे हैं.

हालांकि बच्चों के पिता का कहना है कि साजिद का एनकाउंटर नहीं होना चाहिए था और अब जो इस मामले में दूसरे अभियुक्त हैं जावेद- उनका एनकाउंटर नहीं होना चाहिए ताकि हत्या की वजह पता चल सके.

एनकाउंटर और लोगों का जश्न

लेकिन आम लोगों के बीच जिस तरह की स्वीकार्यता साजिद के एनकाउंटर को मिल रही है वो एक लोकतंत्र और किसी भी विकासशील समाज के लिए असहज करने वाली बात है.

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फ़ैसलों में ये बार बार दोहराया है कि 'एक्सेस टू जस्टिस' यानी न्याय हासिल करना किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है. लेकिन जब जांच एजेंसियां पर ही सवाल उठने लगे तो इसके आम लोगों के लिए क्या मायने होंगे.

ऐसे ही कई सवालों के जवाब हमने तलाशने की कोशिश की.

उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं कि "एनकाउंटर कानून सही होते हैं. जो अपराधी प्रवृत्ति के लोग होते हैं वो अकेले ही पुलिस की टीम पर जानलेवा हमला करने में सक्षम होते हैं ऐसे में आत्मरक्षा में अगर उन्हें मारा जा रहा है तो बिलकुल सही है. शातिर दिमाग के हत्यारे जो गला रेत कर मार रहे हैं उन्हें मासूम नहीं समझना चाहिए."

विभूति नारायण राय साल 1975 बैच के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और उन्होंने मेरठ मे हुए हाशिमपुरा जनसंहार की न्यायिक लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

विभूति नारायण राय की राय विक्रम सिंह से बिलकुल अलग है. वो एनकाउंटर करने के इस 'पॉपुलर कल्चर' को किसी भी तरह से ठीक नहीं मानते.

वो मानते हैं कि एक समाज के तौर पर हम एनकाउंटर या हिंसा के पक्ष में इसलिए भी रहते हैं क्योंकि हमारे समाज के मूल में हिंसा का भाव हमेशा से रहा है.

विभूति नरायण कहते हैं, "जो हुआ (एनकाउंटर) है वो कानूनन गलत है. हमें ये समझना होगा कि हमारे समाज की मूल संरचना में ही हिंसा है और हम एक तरह से हिंसा को ना सिर्फ़ सहमति देते हैं बल्कि उसका जश्न भी मनाते हैं. आप हमारी भाषा में भी हिंसा देखेंगे कि हम महिलाओं के लिए, पिछड़े समुदाय से आने वाले लोगों या फिर विकलांग लोगों के लिए अपमानजनक, हिंसा वाले शब्द इस्तेमाल करते हैं. समाज में इसे लेकर सहजता है. आप देखेंगे कैसे समाज में 'डायन' कह कर महिलाओं को मार डाला जाता है. जब इस तरह से अपराधियों के साथ 'त्वरित न्याय' का दावा किया जाता है तो आम लोग इसे कभी भी मूल रूप से मानवाधिकार का हनन नहीं मानते. इसे लेकर खुश होते हैं."

मई में इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रशांत कुमार ने कहा था कि "उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के बड़े साफ़ आदेश हैं कि अपराध और माफ़ियाओं के खिलाफ़ ज़ीरो टलरेंस होना चाहिए. इसके लिए पुलिस को खुली छूट दी गई है जिससे पुलिस फोर्स को मज़बूती मिली है. एनकाउंटर हमारी स्ट्रैटजी का एक छोटा सा हिस्सा है."

'ना ही ये लॉ है और ना ही ये जस्टिस'

दिल्ली हाईकोर्ट में जज रहे जस्टिस आरएस सोढ़ी कहते हैं कि आम लोगों का 'एनकाउंटर या बुलडोजर जस्टिस' के प्रति स्वीकार्यता होने का सबसे मूल कारण है न्याय प्रकिया और न्यायपालिका में लोगों का घटता विश्वास.

"लोगों को तय प्रक्रिया से न्याय सपना लगने लगा है तो उन्हें लगता है कि यही न्याय का एक तरीका है. पुलिस तय करे कि न्याय क्या है ये अस्वीकार्य है और हमेशा होना चाहिए. किसी तरह से ना ही ये लॉ है और ना ही ये जस्टिस है."

जस्टिस सोढ़ी कहते हैं, "न्याय और और कानून का राज दो अलग अलग चीज़ है इसका अंतर समझना बहुत ज़रूरी है. कानून का राज हो ये सुनिश्चतित करना हमेशा से पुलिस- प्रशासन का काम है और रहेगा लेकिन न्याय ज्यूडिशियरी का काम है, ये भी अगर प्रशासन करने लगे तो ना तो ये न्याय के लिहाज से सही है और ना ही एक लोकतंत्र के लिये."

हालांकि विक्रम सिंह एनकाउंटर की प्रमाणिकता के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि "कोई भी एनकाउंटर जब होता है तो राज्य के मानवाधिकार आयोग को उसकी रिपोर्ट जाती है और वो ये रिपोर्ट पढ़ते हैं. इस आयोग में इतने अनुभवी लोग होते हैं कि अगर कुछ गलत होता तो उन्हें तुरंत पता चल जाएगा. ऐसे में एनकाउंटर की प्रमाणिकता पर सवाल उठाना ठीक नहीं है."

'ठोक देने' की परंपरा

हालांकि विभूति नारायण जो खुद सूबे के पुलिस प्रमुख रह चुके हैं और जिन्होंने यूपी के इतिहास का एक हिंसक और सांप्रदायिक दौर देखा है, वो इससे बिलकुल अलग राय रखते हैं.

वो कहते हैं, "आयोग की स्वायत्ता पर अक्सर सवाल उठते हैं, आयोग ज्यादातर मामलों में सरकार की रिपोर्ट पर सहमति दर्ज करा देता है. अगर पुलिस इतनी कॉफिडेंट है तो अपने टॉप पांच एनकाउंटर जिसे वो पुख्ता तौर पर एनकाउंटर मानती है उसकी जांच स्वतंत्र टीम से करा दे. जिसमें पूर्व पुलिस ऑफिसर, जस्टिस, सिविल सोसायटी के लोग और पत्रकार भी हों. मेरा मानना है कि ये एनकाउंटर गलत साबित होंगे."

यूपी में योगी आदित्यनाथ की जो छवि है वो एक ऐसे नेता के रूप में है जो 'ठोंक देंगे' की परंपरा पर यकीन करते हैं.

साल 2017 में प्रदेश का सीएम बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने आप की अदालत शो में कहा था, "अगर अपराध करेंगे, तो ठोक दिए जाएंगे."

'एनकाउंटर आसान है और न्याय प्रकिया को बेहतर बनाना मुश्किल'

बीते साल फरवरी में विधानसभा में योगी आदित्यनाथ ने असद अहमद के एनकाउंटर पर कहा था, "मैं आज इस सदन से कह रहा हूं, मैं इस माफिया को मिट्टी में मिला दूंगा."

उनका ये बयान सोशल मीडिया पर खूब ट्रेंड हुआ और कई लोगों ने इस बयान को उनके 'तेज़ तर्रार' तेवर के रूप में देखा.

जस्टिस सोढ़ी कहते हैं, "कई बार राजनेता इस तरह की कार्रवाई के समर्थन में सार्वजनिक बयान देते हैं, मेरा मानना है कि ये अपरिपक्व लोग हैं जिन्हें हम ज़िम्मेदार कुर्सियों पर बैठा देते हैं. ऐसे बयानों पर लोगों का ताली बजाना खुद उन लोगों को लिए ठीक नहीं जो ताली बजा रहे हैं."

योगी सरकार में इन एनकाउंटर को उस 'सुरक्षा' के रूप में पेश किया जाता है जिसका वादा उन्होंने 2022 के चुनाव में जनता से किया था.

यूपी में उन्हें 'बुलडोजर बाबा' कहा जाता है. जब साल 2022 में मैं उत्तर प्रदेश का चुनाव कवर कर रखी थी तो नजीते वाले दिन गोरखनाथ मंदिर पहुंची. बीजेपी की जीत के जश्न में कई समर्थक बुलडोजर ले कर पहुंचे थे. नारे लगे- "इस प्रदेश में एक ही न्याय, बुलडोजर न्याय. बुलडोजर न्याय."

बुलडोजर न्याय का ये दौर अब यूपी से आगे बढ़कर मध्य प्रदेश, हरियाणा तक पहुंच चुका है.

विभूति नारायण बताते हैं कि "एनकाउंटर पहले भी किए जाते थे और ये सरकारों की नाकामी छिपाने के लिए होती थी, देखिए न्याय प्रक्रिया को बेहतर और तेज़ बनाने में खर्चा आएगा तो वो ऐसा करना नहीं चाहती, आसान है इस तरह के 'क्विक' एक्शन लेकर लोगों से वाहवाही लूट लेना इससे नाकामी छिप जाती है, जनता के बीच माहौल भी बन जाता है."

"साल 1980-81 के दौरान मैं इलाहाबाद के एसपी के तौर पर तैनात था. उस वक्त राज्य में वीपी सिंह की सरकार थी और उन्होंने डकैतों के खिलाफ़ अभियान चलाया. उस समय पुलिस प्रमुख आईजीपी हुआ करते थे. मुझे याद है उन्होंने हर ज़िले के अधिकारियों को बुला कर एक तय तारीख तक राज्य से सभी अपराधी खत्म करने का अल्टीमेटम दे दिया. अब एसपी अपराधी और डकैत कहां खोजते कई एनकाउंटर हुए और उसमें छोटी-मोटी छिनैती करने वालों को भी मार दिया गया. और उस समय भी लोगों में इसे लेकर कोई शिकायत नाराज़गी नहीं थी, हर्ष उल्लास का भाव ही था आम लोगों के लिये भी."

नारायण ये कहते है कि "जो नया पैटर्न अब मैं देख रहा हूं वो ये है कि अख़बारों के इश्तेहार में ये बताया जाता है कि इतने एनकाउंटर हमने किए. बुलडोजर एक्शन जिन-जिन पर हुआ है उनकी लिस्ट निकालें तो साफ़ दिख जाएगा कि ज़्यादातर मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चले और वो भी बिना पूरी प्रक्रिया का पालन किए. धर्म इस तरह की कार्रवाई में इतना अहम एंगल अब हुआ है.

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