आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव भी होने हैं। यहां राजनीतिक दल फिर नए सिरे से संगठित हो रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगु देशम पार्टी ने आंध्र को विशेष दर्जा देने के मुद्दे पर पांच साल पहले एनडीए छोड़ दी थी।
यह चुनावी गठजोड़ दोनों ही पार्टियों के लिए बेहतर होने के तौर पर देखा जा रहा है। बीजेपी दक्षिण में अपना आधार बढ़ाना चाहती है जिसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है। अपने बूते यह राज्य में कुछ भी हासिल नहीं कर सकती। सभी चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों ने संकेत दिया है कि टीडीपी की वापसी हो सकती है, जबकि मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी बहुत ही कठिन एंटी इन्कम्बेंसी से जूझ रही है। टीडीपी में यह समझ बढ़ रही है कि संयुक्त विपक्ष के जरिये ही जगन को सत्ता से हटाया जा सकता है। टीडीपी के लोगों का मानना है कि भले ही बीजेपी छोटी-मोटी खिलाड़ी हो, अगर वह केन्द्र में फिर सत्ता में आती है, तो एनडीए में रहने पर भविष्य में टीडीपी को फायदा हो सकता है।
गठबंधन को अंतिम रूप दे दिया जाता है, तो टीडीपी, बीजेपी और एक्टर से राजनीतिज्ञ बने पवन कल्याण की जन सेना पार्टी मिलकर चुनाव लड़ेगी। बीजेपी और जन सेना पार्टी के बीच पहले से ही गठबंधन है। टीडीपी सूत्रों के अनुसार, 'यह निश्चित है कि टीडीपी गठबंधन में शामिल होगी। सीटों पर बातचीत भी जल्द ही होगी।' वैसे, टीडीपी नेताओं के एक वर्ग को आशंका है कि बीजेपी के साथ गठबंधन से अल्पसंख्यक उससे अलग हो सकते हैं। आंध्र में उनकी अच्छी-खासी संख्या है और वे सत्तारूढ़ वाईएसआसीपी के पारंपरिक वोट बैंक माने जाते हैं।
2019 चुनावों में 175 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में टीडीपी को 23 सीटें मिली थीं जबकि राज्य की कुल 25 लोकसभा सीटों में से ही तीन ही। वाईएसआसीपी ने 151 विधानसभा सीटें और 22 लोकसभा सीटें जीती थीं।
ज्यादा ही कड़वा और कटु
मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी की बहन वाईएस शर्मिला को जब पिछले महीने राज्य कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, तो बड़े पैमाने पर यह माना गया कि इस दक्षिणी राज्य में यह अपने पिता और लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय वाईएस राजशेखर रेड्डी की राजनीतिक विरासत के लिए दोनों संतानों के बीच संघर्ष होगा। लेकिन यह इससे अधिक कुछ होता नजर आ रहा है।
इस धर्मनिष्ठ ईसाई परिवार में आस्था, निष्ठा और पनपता अविश्वास चुनाव अभियान को कड़वा और कटुतापूर्ण बनाने वाला है। चुनाव अभियान के दौरान ईसाई कार्ड का उपयोग करते हुए और अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अपने भाई की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए शर्मिला सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के पुख्ता वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास कर रही हैं। एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने सवाल उठाया कि 'जगन तब भी अपने को ईसाई कैसे कह सकते हैं जब उन्होंने बीजेपी के साथ हाथ मिला रखा है और मणिपुर में ईसाइयों पर हमले के वक्त भी चुप हैं?'
शर्मिला के पति अनिल कुमार ईसाई मत प्रचारक हैं। उनके समर्थकों की राज्य में अच्छी-खासी संख्या है। वह भी छोटी-छोटी सभाओं में अपनी पत्नी के लिए समर्थन जुटा रहे हैं। हाल में इलुरु शहर में उन्होंने कहा कि 'शक्तिशाली को हराने के लिए परमात्मा कमजोर को चुनता है। वह परमात्मा के साम्राज्य को धरती पर लाने के लिए धरती पर किसी को भेजेगा।' कुमार का जन्म धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ। 1995 में शर्मिला के साथ शादी के बाद उन्होंने ईसाईयत ग्रहण कर लिया और पेस्टर बन गए।
जगन खुद भी धर्मनिष्ठ ईसाई हैं। पर सार्वजनिक रैलियों में वह धार्मिक कार्ड नहीं खेलते रहे हैं। यह काम उन्होंने अपने चाचा और धर्म प्रचारक विमल रेड्डी पर छोड़ रखा है। विमल रेड्डी ने एक सभा में कहा भी, 'हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि जगन रेड्डी सत्ता में लौटें। अन्यथा न तो ईसाई सुरक्षित रहेंगे और न ही उनकी अपनी धार्मिक स्वतंत्रता रहेगी।'
ईसाई समुदाय वाईएसआर परिवार का पारंपरिक समर्थक माना जाता रहा है। 2011 जनगणना के अनुसार, ईसाईयों की संख्या राज्य में 2 प्रतिशत से भी कम है, पर वास्तविक संख्या इससे ज्यादा मानी जाती है। राजनीतिक विश्लेषक और लेखक के रमेश बाबू कहते हैं कि 'यह बात ध्यान में रखने की है कि आंध्र प्रदेश में धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बने लोग अपनी हिन्दू पहचान बनाए रखना बेहतर मानते हैं और वे दशकों पुरानी परंपराएं मानते हैं। वे अपने धर्म में औपचारिक और सरकारी तौर पर बदलाव की जरूरत नहीं महसूस करते।'
धर्म तो ठीक, पर जाति?
प्रसिद्ध तिरुमला मंदिर का स्वायत्त ट्रस्ट- तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) दूसरे धर्मों के लोगों को हिन्दू धर्म में प्रवेश कराने के लिए नई प्रकार की व्यवस्था बनाने जा रहा है। इस किस्म के धार्मिक कदम का वृहत्तर सामाजिक असर होगा। तिरुमला में 'धार्मिक सदा' (सम्मेलन) को संबोधित करते हुए टीटीडी अध्यक्ष बी करुणाकर रेड्डी ने कहा कि 'बनाया जा रहा मंच भारत में अपने किस्म का पहला होगा। इसका लक्ष्य सनातम धर्म के मूल्यों का विस्तार करना और गैर हिन्दुओं को स्वेच्छा से हिन्दू धर्म स्वीकार करने के लिए सुविधा देना है।'
उन्होंने बताया कि 'हम किसी भी धर्म के व्यक्ति को ऐसे हिन्दू धर्म के प्रति आस्था व्यक्त करने, हिन्दू देवी-देवताओं में विश्वास अर्पित करने और सनातन धर्म अंगीकार करने का अवसर उपलब्ध कराएंगे जो सदियों से जीवन पद्धति रही है।' उन्होंने कहा कि उन्हें प्रसन्नता है कि भगवान वेंकटेश्वर की भूमि तिरुमला ऐसे स्थान के तौर पर चुना जाएगा जहां लोग हिन्दू धर्म में आस्था की घोषणा कर सकेंगे।
टीटीडी अधिकारियों ने बताया कि स्वेच्छा से हिन्दू जीवन पद्धति स्वीकार करने वाले लोगों को हिन्दू रीति-रिवाजों, परंपराओं और आचार-व्यवहार का प्रशिक्षण दिया जाएगा और इस कार्यक्रम की शुरुआत तिरुमला में की जाएगी। सम्मेलन में भाग लेने वाले विभिन्न पीठों और मठों के धर्माचार्यों और धर्मिक प्रमुखों ने कहा कि वे चाहते हैं कि सनातन धर्म को फैलाने और लोगों के दूसरे धर्मों में जाने से रोकने में टीटीडी नेतृत्व पहल करें।
रेड्डी ने याद दिलाया कि टीटीडी ने पहले भी दलित गोविंदम, कल्याणमस्तु और कैसिका द्वादशी-जैसे कार्यक्रम आयोजित किए हैं जिसने सुदूरवर्ती इलाकों में धर्मपरिवर्तन पर रोक में मदद पहुंचाई है। लेकिन उस्मानिया विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर एस रामाकृष्णा ने कहा कि 'जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म की न इनकार की जाने वाली व्यवस्था है। ऐसे में सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म में प्रवेश करने वाले नए व्यक्ति को किस जाति में पहचाना जाएगा?'
पीड़ा देने वाले याद कर रहे
अपने दिनों में लोकप्रिय रहे अभिनेता और मुख्यमंत्री एनटी रामा राव अपने अंतिम दिनों में दुखी व्यक्ति थे। अपने ही दामाद एन चंद्रबाबू नायडू ने राजनीतिक कुशलता के जरिये उन्हें सत्ताच्युत कर दिया था और इस मौकापरस्ती से वह कभी उबर नहीं पाए। जनवरी, 1996 में उनका निधन हो गया। उन्हें पीड़ा पहुंचाने वाले ही अब उन्हें पूजने लगे हैं। रामाराव ने ही चार दशक पहले टीडीपी की स्थापना की थी। अब इसका नेतृत्व चंद्रबाबू नायडू कर रहे हैं। उन्होंने रामा राव के लिए भारत रत्न की मांग की है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह खेप में पांच लोगों को भारत रत्न देने की घोषणा की है, उससे भी टीडीपी को इस किस्म की मांग उठाने का अवसर मिल गया है। एनटीआर की विरासत का अब भी राजनीतिक महत्व है। एनटीआर की राष्ट्रीय राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1990 के दशक में गैर कांग्रेस पार्टियों के मंच- नेशनल फ्रंट के गठन में उनकी भागीदारी थी। वह इसके अध्यक्ष रहे थे।
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