पश्चिम बंगाल (West Bengal) कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी (Adhir Ranjan Chowdhury) ने गुरुवार, 4 जनवरी को कहा कि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस (TMC) से "सीटों की भीख नहीं मांगेगी".
द हिंदू के अनुसार, चौधरी का ये बयान मालदा दक्षिण से कांग्रेस सांसद अबू हशम खान चौधरी के उस बयान के बाद आया है, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि "राज्य में कांग्रेस को दो सीटें देने पर TMC के साथ एक समझौता हुआ था."
पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस सांसद जिन सीटों का जिक्र कर रहे थे, वे मालदा दक्षिण और बेहरामपुर थी. हालांकि, TMC ने अभी तक सीटों के बंटवारे की पुष्टि नहीं की है.
इस बीच, अधीर रंजन की बयान के जवाब में TMC के सौगत रॉय ने टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा,
"TMC और हमारी पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी की बुराई और गठबंधन साथ-साथ नहीं चल सकता... अगर वे बंगाल में गठबंधन चाहते हैं तो कांग्रेस आलाकमान को अधीर रंजन चौधरी पर लगाम लगानी चाहिए."रिपोर्ट्स के मुताबिक, कांग्रेस नेता आगामी चुनाव में आठ सीटों की मांग कर रहे हैं- मुर्शिदाबाद में तीन सीटें, मालदा से दो, और दार्जिलिंग, पुरुलिया और रायगंज सहित तीन अन्य सीटें.
हालांकि, अधिकांश राज्यों में कांग्रेस और INDIA गठबंधन के अन्य सहयोगियों के बीच सीटों का बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है, इस बीच क्विंट हिंदी आपको बता रहा है कि पश्चिम बंगाल में देश की सबसे पुरानी पार्टी के सामने क्या चुनौतियां हैं - और जहां तक TMC के साथ बातचीत की बात है तो यह बैकफुट पर क्यों है?
इतिहास पर एक नजर?
विभाजन के बाद, कांग्रेस पश्चिम बंगाल में बेहद ताकतवर थी. अपने दो दशक से अधिक के शासन के दौरान, पार्टी ने पश्चिम बंगाल को चार मुख्यमंत्री दिए- प्रफुल्ल चंद्र घोष (1947-48), बिधान चंद्र रॉय (1948-62), प्रफुल्ल चंद्र सेन (1962-1967) और सिद्धार्थ शंकर रे (1972-77).
हालांकि, पार्टी का पतन 1977 के आसपास शुरू हुआ जब समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक लोकप्रिय विद्रोह के बाद इंदिरा गांधी सरकार के पतन के बाद केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार स्थापित हुई.
मनोजीत मंडल, राजनीतिक विश्लेषक और जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर"1977 के चुनावों (इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल वापस लेने के बाद) में हार के बाद कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के राजनीतिक मंच पर अपनी प्रमुख स्थिति खो दी. मतभेद और तकरार के कारण पार्टी से लोगों का मोहभंग हो गया."कांग्रेस ने भारतीय कम्युनिस्ट मार्क्सवादी पार्टी (CPI-M) के लिए जमीन छोड़ना शुरू कर दिया, जिसने अगले 34 सालों तक राज्य पर शासन किया.
हालांकि, कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका 1998 में लगा जब इसके अपने सदस्यों में से एक ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़ दी और TMC की स्थापना की. ममता दो बार कांग्रेस सांसद रहीं - 1984 में जादवपुर से और 1991 में कलकत्ता दक्षिण से, इस दौरान उन्होंने कुछ समय के लिए मंत्री के रूप में भी काम किया.
मंडल ने द क्विंट से कहा, "उनके (ममता बनर्जी) रूप में, सबसे पुरानी पार्टी को एक बड़ा दुश्मन मिला."
वामपंथियों की 34 साल पुरानी सत्तारूढ़ लकीर को तोड़ते हुए, TMC 2011 से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है.
आंकड़े क्या कहते हैं?
1977 में पश्चिम बंगाल की सत्ता से बेदखल होने के बाद से लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का अब तक की सबसे अच्छा 1984 के चुनाव में रहा था. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अपने पक्ष में बनी लहर पर सवार होकर पार्टी ने 48 प्रतिशत वोटों के साथ 16 सीटों पर कब्जा जमाया था.
कांग्रेस का दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन 1996 में रहा, जब पार्टी ने 9 सीटें जीतीं और 40 प्रतिशत वोट हासिल किए. हालांकि, 1998 में TMC के गठन के साथ, वाम-विरोधी वोटों का एक बड़ा हिस्सा ममता की पार्टी की ओर चला गया, जो प्रमुख विपक्ष बन गई.
2001 के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को लगभग 13 प्रतिशत वोट ही मिल सके.
2004 के लोकसभा चुनावों में, पार्टी कुछ हद तक उबरी और 14 प्रतिशत वोट शेयर के साथ छह सीटें जीतने में सफल रही.मंडल ने आगे बताया, "लेफ्ट के समर्थन से UPA-1 (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-1) सरकार के गठन ने फिर से इसकी गिरावट को तेज कर दिया, क्योंकि राज्य में विपक्ष की जगह कम हो गई."
2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस 9 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट शेयर के साथ चौथे स्थान पर खिसक गई थी.
मनोजीत मंडल"विपक्ष के वोट शेयर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अपने लिए जुटाने में कांग्रेस की असमर्थता 2018 के पंचायत चुनावों में उसके प्रदर्शन में स्पष्ट थी, जिसमें चतुष्कोणीय मुकाबला देखने को मिला और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) एक ताकत के रूप में उभरी. सत्तारूढ़ TMC ने चुनावों में जीत हासिल की, लेकिन बीजेपी मुख्य चुनौती बनकर उभरी, जबकि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां हाशिए पर चले गए.''2019 के चुनावों में, TMC ने 22 सीटें जीतीं, कांग्रेस ने दो (मालदा और मुर्शिदाबाद) जीतीं, और बीजेपी ने 18 सीटों पर कब्जा जमाया.
खरीद-फरोख्त के आरोप, नेताओं का पलायन और भी बहुत कुछ
विशेषज्ञों और पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, पार्टी कई समस्याओं से घिरी हुई है.
कांग्रेस नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद प्रदीप भट्टाचार्य ने द क्विंट को बताया, "हां, यह वास्तव में बंगाल में हमारे अस्तित्व को साबित करने की लड़ाई है. यह सच है कि हमने पिछले कुछ वर्षों में अपनी बहुत ताकत खो दी है."
भट्टाचार्य ने क्विंट को बताया कि राज्य कांग्रेस में एक बड़ा वर्ग महसूस करता है कि 2001 विधानसभा, 2009 लोकसभा और 2011 विधानसभा चुनावों में (जब TMC ने वामपंथियों का 34 साल पुराना कार्यकाल समाप्त कर दिया था) TMC के साथ गठबंधन करना एक बड़ी गलती थी. बड़ी गलती क्योंकि इससे उसकी कमजोरियां उजागर हो गईं और सहयोगियों पर निर्भरता बढ़ गई."
प्रदीप भट्टाचार्य "TMC के साथ गठबंधन करने के लिए पार्टी के हितों का त्याग करना आलाकमान का निर्णय था जिसके कारण कांग्रेस में इतनी दयनीय स्थिति पैदा हुई."इस बीच, मंडल ने "विधायकों की खरीद-फरोख्त" पर बार-बार होने वाले कटाक्षों की ओर इशारा किया, जो भी कांग्रेस के पतन का कारण हो सकते हैं.
मंडल ने द क्विंट को समझाते हुए बताया, "कांग्रेस अपने वोट बैंक में लगातार गिरावट और अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के TMC और पुनर्जीवित बीजेपी की ओर पलायन से जूझ रही है. पार्टी गुटबाजी, विश्वसनीय और प्रभावी नेतृत्व की कभी न खत्म होने वाली तलाश और संगठनात्मक कमजोरी से त्रस्त और आहत है.''
मंडल ने यह भी कहा कि राज्य कांग्रेस में यह भावना है कि पार्टी आलाकमान ने लंबे समय से उनकी "उपेक्षा" की है.इसी बात को दर्शाते हुए राज्य कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर द क्विंट को बताया, "दो हफ्ते पहले, पार्टी आलाकमान ने जम्मू-कश्मीर के कांग्रेस नेता गुलाम अहमद मीर को पश्चिम बंगाल इकाई का प्रभार सौंपा था. पश्चिम बंगाल जैसे महत्वपूर्ण राज्य में, जहां बीजेपी तेजी से अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है, और जहां अल्पसंख्यक वोट बड़े पैमाने पर कांग्रेस से TMC की ओर खिसक गए हैं, वहां एक अधिक प्रमुख और निर्णायक चेहरा उपयुक्त होता."
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि यह निर्णय स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि आलाकमान पश्चिम बंगाल को कितनी गंभीरता से लेता है.
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