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गुरुवार, 11 जनवरी 2024

दुनिया के 'सबसे खुशहाल देश' ने कैसे भारत को मुस्कुराने की वजह दी?

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लक्षद्वीप जाने के बाद मालदीव से छिड़े विवाद, सोशल मीडिया के जरिए माले को सबक सिखा देने की चर्चा के बीच कहीं आप कुछ मिस तो नहीं कर रहें? मालदीव के अलावा जो दूसरे भारत के पड़ोसी हैं, उस तरफ भी तनिक देखिए.

उधर कुछ संभावना की खिड़कियां खुली हैं. बांग्लादेश में शेख हसीना की एकतरफा जीत ने भारत को पहले मुस्कुराने की वजह दी, अब पड़ोसी मित्र देश भूटान से आ रहे समाचार से भारत शायद गदगद हो.

महज पंद्रह साल पहले लोकतंत्र का स्वाद चखने वाले भूटान में मंगलवार, 9 जनवरी को आम चुनाव हुआ. जिसमें भूटान के पूर्व प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे की पार्टी करीब दो-तिहाई सीटों के साथ संसदीय चुनाव जीत गई. तोबगे दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. इससे पहले वह 2013 से 2018 के दौरान शासन संभाल चुके हैं. तोबगे से भारतीय इस लिहाज से भी परिचय और एक जुड़ाव कायम करने की कोशिश करते हैं कि उनकी सीनियर सेकेंडरी की पढ़ाई पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग जिले से हुई है.

तोबगे की प्रचंड जीत पर दुनिया के जिन कुछ एक नेताओं की सबसे पहले बधाई वाली प्रतिक्रिया आई, उसमें प्रधानमंत्री मोदी थे. यह भारत के लिए भूटान की अहमियत बताने को काफी है. भौगोलिक तौर पर एक ओर भारत और दूसरी तरफ चीन के बीच स्थित भूटान की नई सरकार के सामने किस तरह की चुनौतियां होंगी, भारत अगले पांच बरस नई सरकार के साथ किस तरह के संबंध रखना चाहेगा. इन सब पर करेंगे बात, पर पहले चुनाव परिणाम जान लीजिए.

भूटान: किसको कितनी सीटें मिलीं

भूटान की संसद, नेशनल असेंबली की कुल 47 सीटों में से 30 पर तोबगे की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी ने चुनाव जीता है जबकि 17 सीटें पूर्व सिविल सेवा अधिकारी पेमा चेवांग की बीटीपी (भूटान टेंड्रेल पार्टी) के हिस्से आई है. 2008 में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना के बाद भूटान में चौथी दफा कोई लोकतांत्रिक सरकार बनने जा रही है.

दिलचस्प है यह जानना भी कि 2008 के बाद हुए सभी संसदीय चुनावों में सत्ताधारी पार्टी को भूटान की आवाम ने नकार दिया. इस चुनाव में भी पिछले पांच साल तक सत्ता में रही ड्रुक न्यामरूप त्शोग्पा यानी डीएनटी पहले चरण के चुनाव में ही धराशायी हो गई. इस राजनीतिक समझ-बूझ को कुछ जानकार भूटानी लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता की तरफ बढ़ता कदम मानते हैं. हालांकि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को पढ़ाने वाले प्रोफेसर अमिताभ सिंह की इसको लेकर राय थोड़ी जुदा है.

प्रोफेसर सिंह कहते हैं – ‘दक्षिण एशिया के और दूसरे देशों की तरह भूटान की राजनीति ऐसी नहीं है जहां सत्ता के लिए गला काट प्रतियोगिता होती हो. यहां लोगों की माली हालत ठीक न होने के बावजूद भी वो एक हद तक संतुष्ट नजर आते हैं. लोगों का राजा के प्रति अब भी झुकाव है और इस बात को लेकर गहरा यकीन कि आने वाले दिन अच्छे होंगे. ऐसे में, लोग अपनी असहमतियों को लेकर भी बहुत मुखर नहीं दिखते’.

मुमकिन है इस वजह से भी भूटानी आवाम बेरोजगारी और दूसरी समस्याओं से जूझते हुए भी खुद को खुशहाल मानती हो. भूटान सरकार की ओर से जारी किये गए मई 2023 की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 94 फीसदी लोग यहां खुद को खुश मानते हैं. मगर सब धान बाईस पसेरी नहीं. शेरिंग तोबगे जब प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने जा रहे हैं, भूटान कुछ गंभीर आर्थिक सामाजिक सवालों से दो-चार हो रहा है और शेरिंग तोबगे को सत्ता संभालते ही पहले इन से निपटना होगा.

तोबगे सरकार के सामने चुनौतियां

पहला – इस चुनाव में देश की आर्थिक सेहत सबसे बड़ा मुद्दा रहा जो कि कोविड 19 के उभार के बाद ही से चरमराई हुई है. क्योंकि भूटान की अर्थव्यवस्था का ज्यादातर हिस्सा पर्यटन पर निर्भर है. कोरोना के दौरान आवाजाही ठप हो जाने से पर्यटन वाली दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं को काफी नुकसान हुआ, भूटान भी इससे अछूता नहीं रहा. वह अब भी उस चोट से उबरने की कोशिश कर रहा है. इसकी गवाही ये है कि पिछले पांच बरस में देश की औसत आर्थिक तरक्की महज 1.7 फीसदी रही. 2023 में भूटान में लगभग 1 लाख पर्यटक आए जो कि चार साल पहले की तुलना में दो-तिहाई कम थे.

दूसरा – आठ लाख की आबादी वाले भूटान की नौजवान पीढ़ी बेरोजगारी के सवालों से भी जूझ रही है. देश में नौजवानों के बीच बेरोजगारी की दर 29 प्रतिशत तक पहुंच गई है. एक बड़ी आबादी का मानना है कि उन्हें अब सड़क, पुल नहीं चाहिए, नई सरकार बस रोजगार के लिए कुछ ठोस कदम उठाए. चुनाव जीतने वाले तोबगे ने अपने घोषणापत्र में दावा किया था कि हर आठ में से एक भूटानी रोजमर्रा की, खाने-पीने से जुड़ी बुनियादी जरुरतों के लिए जद्दोजहद कर रहा है.

तीसरा – साइज के हिसाब से स्वीट्जरलैंड के लगभग बराबर और बेहद खुबसूरत भूटान के कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको अपना वतन अब रास नहीं आ रहा. यह ब्रेन ड्रेन (प्रतिभाशाली लोगों का विदेशों में पलायन) भी भूटान को कमजोर कर रहा है. आय से लेकर शिक्षा से जुड़े अवसरों की तलाश में बड़ी संख्या में लोग देश छोड़ रहे हैं और पलायन करने वालों की सबसे पसंदीदा जगह ऑस्ट्रेलिया है.

चौथा – भूटान ग्रॉस नेशनल हैपिनेस इंडेक्स (जीएनएच) के लिए जाना जाता है. भूटान के सरकार की समझ है कि जीएनएच उन पहलूओं पर भी ध्यान देता है जो जीडीपी के गुणा-गणित और आकलन में अक्सर नजरअंदाज हो जाया करती है. भूटान का संविधान भी GDP के बजाए लोगों की खुशहाली से देश की तरक्की नापने की वकालत करता है. जिसमें मनोरंजन से लेकर भावनात्मक तौर पर लोगों की् बेहतरी शामिल है. नई सरकार के सामने इस ग्रॉस नेशनल हैपिनेस इंडेक्स में सुधार की चुनोती होगी, वह भी तब जब अर्थव्यवस्था सुस्ती झेल रही हो.

साल 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके समकक्ष शेरिंग तोबगे की मुलाकात

भारत के लिए तोबगे की जीत के मायने

भूटान भारत और चीन जैसी बड़ी शक्तियों के बीच अपनी बाट जोहता हुआ नजर आता है. राजधानी थिम्फू के साथ नई दिल्ली के पारंपरिक तौर पर गहरे आर्थिक, व्यापारिक संबंध रहे हैं. प्रोफेसर अमिताभ सिंह कहते हैं कि – ‘प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू याक की सवारी कर तब भूटान गए थे जब वहां जाने का रास्ता अच्छा नहीं था. भूटान और भारत के संबंध पुराने और प्रगाढ़ रहे हैं. ये नजदीकियां किसी चुनाव परिणाम से बदलने वाली नहीं हैं. यूएन से लेकर और दूसरे वैश्विक मंचों पर भूटान, भारत का प्रबल समर्थक रहा है और आगे भी ऐसा ही होगा’

भारत के लिए यह सबकुछ इसलिए भी अहम है क्योंकि भूटान और चीन के बीच औपचारिक तौर पर अभी तलक राजनयिक संबंध स्थापित नहीं हैं. पर हाल के दिनों में, खासकर पिछली सरकार के दौरान भूटान और चीन के बीच सीमा विवाद सुलझाने, राजनयिक संबंध स्थापित करने को लेकर महत्त्वपूर्ण बातचीत हुई है. इसे कुछ हलकों में दोनों देशों के बीच बढ़ती निकटता के तौर पर देखा जा रहा. हालांकि प्रोफेसर सिंह इस से धारणा से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते.

प्रोफेसर साहब का कहना है कि – ‘हाल में हुए भूटान और चीन की बातचीत को ऐसे नहीं देखना चाहिए कि दोनों देश एक दूसरे के करीब आ रहे हैं. जिस तरह नेपाल, बांग्लादेश जैसे देश भारत और चीन दोनों को अपनी विदेश नीति में तरजीह देते हैं, ऐसे ही कुछ प्रयास भूटान भी करता नजर आ रहा है और यह जरुरी नहीं कि यह सरकार पिछली सरकार की कोशिशों से पीछे हट जाए. बावजूद इसके, भूटान अपनी भौगोलिक अवस्था को बदल नहीं सकता. इसलिए भारत-भूटान के संबंध एक झटके में प्रभावित नहीं होंगे’.

नाथू ला सीमा पर भारत और चीन के सैनिक, फाइल फोटो

सिलिगुड़ी कॉरिडोर की वजह से भारत के लिए डोकलाम का इलाका काफी संवेदनशील है. भूटान पहले भी साफ कर चुका है कि वह डोकलाम विवाद में भारत और चीन के साथ बराबर का साझेदार खुद को मानता है. भारत की ये कोशिश होनी चाहिए कि वह राजधानी थिम्फू को अपनी और उसकी सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं से अवगत कराए, साथ ही भूटान को विश्वास में ले डोकलाम विवाद के एक ठोस समाधान की तरफ बढ़े.

अपने पहले कार्यकाल के दौरान तोबगे ने भारत से गर्मजोशी भरा संबंध रखा था. नई दिल्ली इस दफा भूटान को आर्थिक सुस्ती से निकालने में मदद कर सकता है. चूंकि तोबगे भूटानी लोगों से ढेर सारे वायदे कर फिर एक बार सत्ता में लोटे हैं, उनके सामने समय रहते उनको पूरा करने की चुनौती होगी. भारत भूटान की मदद कर अपने सामरिक हितों को साध सकता है. भारत के पास यह अवसर भी है जहां वह भूटान को इस बात के लिए आश्वस्त करे कि चीन की आर्थिक मदद कर्ज के जाल में फंसाने वाली है जबकि भारत की दोस्ती, मदद को बढ़ता हाथ, उलझाने वाला नहीं है.

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