शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 30 को प्रभावी बनाने के लिए इस तरह के दर्जे का दावा करने के लिए किसी अल्पसंख्यक समूह द्वारा संस्थान के पूर्ण प्रशासन की जरूरत नहीं है। पीठ ने आगे कहा, अब प्रशासन का कोई पूर्ण मानक नहीं है कि आपको सौ फीसदी प्रशासन करना चाहिए। इसलिए, अनुच्छेद 30 को प्रभावी बनाने के लिए हमें यह मानने की जरूरत नहीं है कि अल्पसंख्यक द्वारा पूर्ण प्रशासन होना चाहिए।
सीजेआई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान कहा, इस अर्थ में आज एक विनियमित समाज या राज्य कुछ भी पूर्ण नहीं है। जीवन का हर पहलू किसी न किसी तरह विनियमित है। सिर्फ इसलिए कि प्रशासन का अधिकार एक कानून द्वारा विनियमित है और कुछ हद तक अनियंत्रित है, तो यह किसी संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को कम नहीं करता है।
उच्चतम न्यायालय ने 12 फरवरी, 2019 को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के बेहद विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था। इसी तरह का संदर्भ 1981 में भी दिया गया था। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा पिछले कई दशकों से कानूनी चक्रव्यूह में फंसा हुआ है।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। हालांकि, 1875 में स्थापित इस प्रतिष्ठित संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा वापस मिल गया, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया।
जनवरी 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था। केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी। विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका भी दायर की है।
भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2016 में उच्चतम न्यायालय से कहा था कि वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी। उसने एस अजीज बाशा मामले में शीर्ष अदालत के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्त पोषित केंद्रीय विश्वविद्यालय है।
मंगलवार को सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने कहा कि राज्य को जनहित में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान के प्रशासन को विनियमित करने का अधिकार है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शिक्षकों की सेवा की शर्तें निष्पक्ष हों और संस्थान के कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार न हो।
पीठ ने कहा कि राज्य पाठ्यक्रम और परीक्षाओं के संबंध में कुछ मानकों जैसी प्रशासनिक जरूरतों को लागू कर सकता है, जो पूरे बोर्ड में लागू होंगे। उन्होंने कहा, 'तीन चीजें बहुत स्पष्ट हैं, आपको केवल धार्मिक पाठ्यक्रमों का संचालन करने की जरूरत नहीं है। आप विशुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का प्रशासन कर सकते हैं। कानून यह नहीं है कि आपको केवल अपने समुदाय के छात्रों को प्रवेश देना है। आप सभी समुदायों के छात्रों को प्रवेश दे सकते हैं।
विश्वविद्यालय की ओर से दलीलें शुरू करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने 1981 और 2019 में सुप्रीम कोर्ट के दो आदेशों के बारे में बात की। उन्होंने कहा, 'मैं आपके दो संदर्भ आदेशों को पढ़ना चाहता हूं, क्योंकि इनमें महत्वपूर्ण बात यह है कि आम तौर पर जब कोई संदर्भ दिया जाता है, तो संदर्भ के बिंदुओं को आपके द्वारा (न्यायाधीश) सूचीबद्ध किया जाता है। इस मामले में ऐसा नहीं किया जा रहा है।'
देश में भाषाई और धार्मिक विविधता का जिक्र करते हुए धवन ने कहा, 'मुझे लगता है कि आप यह ध्यान में रखेंगे कि भारत में ऐसी विविधता है जो महाद्वीपों या दुनिया के किसी अन्य देश से अधिक है।' उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत कुछ ऐसा फैसला कर रही है जो भाषा और धर्म दोनों के संदर्भ में 'भारतीय धर्मनिरपेक्षता और विविधता के दिल' तक जाती है। वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा,'अगर आप अमेरिका को देखें और अगर आप आज भारत को देखें तो निजी संस्थान और अल्पसंख्यक संस्थान भारतीय शिक्षा का दिल और आत्मा हैं। आप इससे इनकार नहीं कर सकते।' बहस अधूरी रही और बुधवार को भी जारी रहेगी।
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